"Only a good-for-nothing is not interested in his past."
Sigmund Freud

Sunday, January 3, 2010

गोहद गाथा 'जब गढ़ बोल उठा' - भाग एक


                          "जब गढ़ बोल उठा"  डा. विश्वंभर  'आरोही' की महान कविता  है , जो कि इतिहास लेखक  डा. अजय  कुमार अग्निहोत्री के शोध ग्रन्थ 'गोहद के जाटों का इतिहास'  में उनकी प्रेरणा का श्रोत रही है. 
  
                स्वयं डा. अजय कुमार अग्निहोत्री के शब्दों में," अपनी कृति का यह रूप भी मुझे देखने को मिलेगा , सोचा भी न था . इतिहास के विषय से बाल्यकाल से ही लगाव रहा . जब मैं हाईस्कूल में पढता था तब गोहद के दुर्ग के सम्बन्ध में कुछ समझने कि जिज्ञासा हुई , किन्तु असफल रहा . गोहद दुर्ग पर लेखनी चलाने कि प्रेरणा मुझे  डा. विश्वंभर  'आरोही '  कि कविता  "जब गढ़ बोल उठा " से मिली ".

जब गढ़ बोल उठा - भाग एक 



 तू  इतिहासों के पृष्ठ,
कलाओं कि भाषा.
तू साहित्यिक कि अभिलाषा.


तू वैभव का उन्माद,
दीन का कौतुहल,
तू रिपुओं का अभिशाप,
आश्रितों का संबल.


तू  द्रढता कि प्रतिमूर्ति,
सुरक्षा का साधन.
तू रणखोरों का लोभ,
समर का आकर्षण.


तुझ पर कितनी ललचायी
तृष्णा जागी हैं ?
कितनों ने तुझसे 
जीवन रक्षा मांगी है ?


तुने तोपों के गोले
कितने झेले हैं ?
दुश्मन के हमले
कितनी बार ढकेले हैं ?

तू कितनी बार लहू में

डूब नहाया है ?
कितने वीरों ने तुझ पर 
खून चढ़ाया है ?


तेरे हित, कितने हार गए 
कितने जीते ?
अब कह अपना इतिहास 
बता वे दिन बीते.


तुने अब तक कितने 
देखे राज्याभिषेक ?
कितनी खुशियाँ 
कितने उत्सव, कह एक एक.

तेरे कण कण में लिखीं 
कथाएँ हैं नितांत,
फिर पड़ा हुआ क्यों 
छिन्न भिन्न चुपचाप शांत ?















 



2 comments:

  1. तेरे कण कण में लिखीं
    कथाएँ हैं नितांत,
    फिर पड़ा हुआ क्यों
    छिन्न भिन्न चुपचाप शांत ?

    Sundar rachna!
    Tahe dilse swagat hai!

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  2. नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ द्वीपांतर परिवार आपका ब्लाग जगत में स्वागत करता है।

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