उस वक़्त की सही तस्वीर :
मध्य भारत में चारों ओर अफरा तफरी का माहौल था, मराठा सरदार रघुनाथ राव पुणे वापस जा चुका था, और मराठों की बागडोर सरदार महादजी शिंदे उर्फ़ सिंधिया के हाथों में थी और उसने यमुना के पश्चिम वाले पूरे छेत्र के राजाओं से चौथ वसूलना फिर शुरू कर दिया. दिल्ली की तरफ जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि सन १७७२ से दिल्ली की सेनाओं की कमान दिल्ली के वफादार और बेहतरीन फौजी कमांडर नजफ़ खान के हाथों में थी.
लेकिन इतिहास में बाजी पलटते देर नहीं लगती और सन १७८२ में नजफ़ खान की मृत्यु से दिल्ली फिर अनाथ हो गयी और मराठों की लालची नज़रें फिर उसकी तरफ उठी. कलकत्ता में बैठे अंग्रेज़ जो की धीरे-धीरे दिल्ली के कमज़ोर मुग़ल बादशाहों की औकात भांप गए थे, अन्दर ही अन्दर उस पर अपनी पूर्ण हुकूमत के सपने देखने लगे. लेकिन उनके इस भारत विजय अभियान में अभी कुछ रोड़े थे जैसे की "मैसूर का हैदर अली" और पुणे से निकले तथा मध्य और उत्तर भारत पर अधिकार किये हुए "मराठे".
इधर गोहद के राणा छत्रसिंह के साथ अंग्रेज़ थे, और गोहद में अपनी मौजूदगी दिखा कर महादजी सिंधिया को दूर रखते थे. महादजी भी अभी किसी पंगे में नहीं पड़ना चाहता था, एक चालाक लोमड़ी की तरह वह मौके की तलाश में था की कब वह अपने जानी दुश्मन, गोहद के राणा को नेस्तनाबूत कर सके. और इसका मौका उसे भरपूर मिला, लेकिन जाटों की नस्ल कुछ अलग सी, आज़ाद ख्याल और दुश्मन की गुलामी तो वे सोचते भी नहीं, ये बात वह अच्छे से समझने वाला था. ... शेष आगे -->