"Only a good-for-nothing is not interested in his past."
Sigmund Freud

Saturday, January 9, 2010

गोहद की रानी का जौहर - १

       यह अमर कथा सन १७८१ ईसवी में ग्वालियर के किले पर गोहद के राणा छत्र सिंह का आधिपत्य स्थापित होने के बाद की है.  {गोहद, ग्वालियर से १८-२० मील दूर उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है}   

उस वक़्त की सही तस्वीर :                                            
      मध्य भारत में चारों ओर अफरा तफरी का माहौल था, मराठा सरदार रघुनाथ राव पुणे वापस जा चुका था, और मराठों की बागडोर सरदार महादजी शिंदे उर्फ़ सिंधिया के हाथों में थी और उसने  यमुना के पश्चिम वाले पूरे छेत्र के राजाओं से चौथ वसूलना फिर शुरू कर दिया. दिल्ली की तरफ जाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि सन १७७२ से दिल्ली की सेनाओं की कमान दिल्ली के वफादार और बेहतरीन फौजी कमांडर नजफ़ खान के हाथों में थी. 
          लेकिन इतिहास में बाजी पलटते देर नहीं लगती और सन १७८२ में नजफ़ खान की मृत्यु से दिल्ली फिर अनाथ हो गयी और मराठों की लालची नज़रें फिर उसकी तरफ उठी. कलकत्ता में बैठे अंग्रेज़ जो की धीरे-धीरे दिल्ली के कमज़ोर मुग़ल बादशाहों की औकात भांप गए थे, अन्दर ही अन्दर उस पर अपनी पूर्ण हुकूमत के सपने देखने लगे. लेकिन उनके इस भारत विजय अभियान में  अभी कुछ रोड़े थे जैसे की "मैसूर का हैदर अली" और पुणे से निकले  तथा मध्य और उत्तर भारत पर अधिकार किये हुए "मराठे".                            
 इधर गोहद के राणा छत्रसिंह के साथ अंग्रेज़ थे, और गोहद में अपनी मौजूदगी दिखा कर महादजी सिंधिया को दूर रखते थे. महादजी भी अभी किसी पंगे में नहीं पड़ना चाहता था, एक चालाक लोमड़ी की तरह वह मौके की तलाश में था की कब वह अपने जानी दुश्मन, गोहद के राणा को नेस्तनाबूत कर सके. और इसका मौका उसे भरपूर मिला, लेकिन जाटों की नस्ल कुछ अलग सी, आज़ाद ख्याल और दुश्मन की गुलामी तो वे सोचते भी नहीं, ये बात वह अच्छे से समझने वाला था. ... 
                                                                                                                                          शेष आगे -->

Sunday, January 3, 2010

गोहद गाथा:"जब गढ़ बोल उठा"-- भाग तीन

              "जब गढ़ बोल उठा"   डा. विश्वंभर  'आरोही'  की महान कविता  है , जो कि इतिहास लेखक  डा. अजय  कुमार अग्निहोत्री  के शोध ग्रन्थ 'गोहद के जाटों का इतिहास'  में उनकी प्रेरणा का श्रोत रही है. 
  
                स्वयं डा. अजय कुमार अग्निहोत्री के शब्दों में," अपनी कृति का यह रूप भी मुझे देखने को मिलेगा , सोचा भी न था . इतिहास के विषय से बाल्यकाल से ही लगाव रहा . जब मैं हाईस्कूल में पढता था तब गोहद के दुर्ग के सम्बन्ध में कुछ समझने कि जिज्ञासा हुई , किन्तु असफल रहा . गोहद दुर्ग पर लेखनी चलाने कि प्रेरणा मुझे  डा. विश्वंभर  'आरोही '  की कविता  "जब गढ़ बोल उठा " से मिली ".


जब गढ़ बोल उठा - भाग तीन


वे आज देख लें, खड़े,
नहीं रह पाएंगे.
निज कृति की यह 
दुर्दशा नहीं सह पाएंगे.

गढ़ बोला,"कवि मैं 
सब कुछ तुझे बताऊंगा.
हर घटना व्यौंरेवार
तुझे समझाऊंगा'.

जो याद रही हैं 
हर्ज नहीं बतलाने में.
जो भूल गया मैं
विवश उन्हें समझाने में.

मैं भीमसिंह राणा की
गौरव गाथा हूँ .
मैं उनकी अमर कीर्ति 
के गीत सुनाता हूँ.

मैं उनकी कृति हूँ
वे मेरे निर्माता थे.
मैं उनकी स्मृति 
वे मम भाग्य विधाता थे.

वे जाट वंश के मुकुट,
प्रजा के पालक थे.
वे कुशल प्रशासक और 
सफल संचालक थे.

वे थे क्षत्रिय की आन 
शिरोमणि वीरों के.
वे थे वैभव की खान
खजाने हीरों के.


उनका यश बढ़ने लगा,
लगे बढ़ने बैरी.
जो राज्य हड़पने हेतु
लगाते थे फेरी.


उनकों राणा ने कितनी
बार हराया था.
फिर भी रिपुओं का 
लालच बाज न आया था.


तब सोचा हमलों से
बचने का यह उपाय.
राजधानी में एक 
सुदृढ दुर्ग बनवाया जाय.

फिर क्या था, खोल 
दिया राणा ने राजकोष.
सामंतों में, जनता में भी
भर गया जोश.


मुझको गढ़ने, तन मन धन
से जुट गए सभी.
सुखमय भविष्य की
आशा में लुट गए सभी.


"इति"




 

गोहद गाथा 'जब गढ़ बोल उठा' - भाग दो

       
               "जब गढ़ बोल उठा"   डा. विश्वंभर  'आरोही'  की महान कविता  है , जो कि इतिहास लेखक  डा. अजय  कुमार अग्निहोत्री  के शोध ग्रन्थ 'गोहद के जाटों का इतिहास'  में उनकी प्रेरणा का श्रोत रही है. 
  
                स्वयं डा. अजय कुमार अग्निहोत्री के शब्दों में," अपनी कृति का यह रूप भी मुझे देखने को मिलेगा , सोचा भी न था . इतिहास के विषय से बाल्यकाल से ही लगाव रहा . जब मैं हाईस्कूल में पढता था तब गोहद के दुर्ग के सम्बन्ध में कुछ समझने कि जिज्ञासा हुई , किन्तु असफल रहा . गोहद दुर्ग पर लेखनी चलाने कि प्रेरणा मुझे  डा. विश्वंभर  'आरोही '  की कविता  "जब गढ़ बोल उठा " से मिली ".

जब गढ़ बोल उठा - भाग दो
  
 सुन कवि की जिज्ञासा
भाषा प्रेरणामई 
चेतना, चेतना शून्य
किले की जाग गईं


वह बोला कवि मेरे 
घावों को मत कुरेद 
तू स्वयं देख तो रहा 
देह के छेद छेद.

तब, कवि बोला क्या
यही तुम्हारा था स्वरुप ?
जो देख रहा मैं आज 
खंडहरकार रूप.

टूटी दीवारें, फूटा--
शीशमहल तेरा.
नभ चुम्बी बुर्जें,ध्वस्त-
कोट का यह घेरा.

ये महल, अटारी,
पत्थर की पच्चीकारी 
किस कलाकार की है 
यह अमर कलाकारी ?

राणा ने ऐसी  कौन 
प्रेरणा पाई थी ?
जो इतनी ऊँची चील-
बुर्ज बनवाई थी.

यह किसी साधना की 
जो अमिट निशानी है.
उस लक्षण मंदिर की.
कह कौन कहानी है.

ये भीमकाय दरवाज़े 
खंडित खड़े हुए.
जिनमें विशाल फाटक 
अब भी हैं जड़े हुए.

ये तेरे गत वैभव की
कथा कह रहे हैं.
ये सब तेरे दुर्दिन 
की व्यथा सह रहे हैं.

सत्रह सौ उन्नतालीस में 
था क्या यही रूप ?
जब भीमसिंह ने 
बनवाया था गढ़ अनूप. 









 








गोहद गाथा 'जब गढ़ बोल उठा' - भाग एक


                          "जब गढ़ बोल उठा"  डा. विश्वंभर  'आरोही' की महान कविता  है , जो कि इतिहास लेखक  डा. अजय  कुमार अग्निहोत्री के शोध ग्रन्थ 'गोहद के जाटों का इतिहास'  में उनकी प्रेरणा का श्रोत रही है. 
  
                स्वयं डा. अजय कुमार अग्निहोत्री के शब्दों में," अपनी कृति का यह रूप भी मुझे देखने को मिलेगा , सोचा भी न था . इतिहास के विषय से बाल्यकाल से ही लगाव रहा . जब मैं हाईस्कूल में पढता था तब गोहद के दुर्ग के सम्बन्ध में कुछ समझने कि जिज्ञासा हुई , किन्तु असफल रहा . गोहद दुर्ग पर लेखनी चलाने कि प्रेरणा मुझे  डा. विश्वंभर  'आरोही '  कि कविता  "जब गढ़ बोल उठा " से मिली ".

जब गढ़ बोल उठा - भाग एक 



 तू  इतिहासों के पृष्ठ,
कलाओं कि भाषा.
तू साहित्यिक कि अभिलाषा.


तू वैभव का उन्माद,
दीन का कौतुहल,
तू रिपुओं का अभिशाप,
आश्रितों का संबल.


तू  द्रढता कि प्रतिमूर्ति,
सुरक्षा का साधन.
तू रणखोरों का लोभ,
समर का आकर्षण.


तुझ पर कितनी ललचायी
तृष्णा जागी हैं ?
कितनों ने तुझसे 
जीवन रक्षा मांगी है ?


तुने तोपों के गोले
कितने झेले हैं ?
दुश्मन के हमले
कितनी बार ढकेले हैं ?

तू कितनी बार लहू में

डूब नहाया है ?
कितने वीरों ने तुझ पर 
खून चढ़ाया है ?


तेरे हित, कितने हार गए 
कितने जीते ?
अब कह अपना इतिहास 
बता वे दिन बीते.


तुने अब तक कितने 
देखे राज्याभिषेक ?
कितनी खुशियाँ 
कितने उत्सव, कह एक एक.

तेरे कण कण में लिखीं 
कथाएँ हैं नितांत,
फिर पड़ा हुआ क्यों 
छिन्न भिन्न चुपचाप शांत ?