स्वयं डा. अजय कुमार अग्निहोत्री के शब्दों में," अपनी कृति का यह रूप भी मुझे देखने को मिलेगा , सोचा भी न था . इतिहास के विषय से बाल्यकाल से ही लगाव रहा . जब मैं हाईस्कूल में पढता था तब गोहद के दुर्ग के सम्बन्ध में कुछ समझने कि जिज्ञासा हुई , किन्तु असफल रहा . गोहद दुर्ग पर लेखनी चलाने कि प्रेरणा मुझे डा. विश्वंभर 'आरोही ' की कविता "जब गढ़ बोल उठा " से मिली ".
जब गढ़ बोल उठा - भाग तीन
वे आज देख लें, खड़े,
नहीं रह पाएंगे.
निज कृति की यह
दुर्दशा नहीं सह पाएंगे.
गढ़ बोला,"कवि मैं
सब कुछ तुझे बताऊंगा.
हर घटना व्यौंरेवार
तुझे समझाऊंगा'.
जो याद रही हैं
हर्ज नहीं बतलाने में.
जो भूल गया मैं
विवश उन्हें समझाने में.
मैं भीमसिंह राणा की
गौरव गाथा हूँ .
मैं उनकी अमर कीर्ति
के गीत सुनाता हूँ.
मैं उनकी कृति हूँ
वे मेरे निर्माता थे.
मैं उनकी स्मृति
वे मम भाग्य विधाता थे.
वे जाट वंश के मुकुट,
प्रजा के पालक थे.
वे कुशल प्रशासक और
सफल संचालक थे.
वे थे क्षत्रिय की आन
शिरोमणि वीरों के.
वे थे वैभव की खान
खजाने हीरों के.
उनका यश बढ़ने लगा,
लगे बढ़ने बैरी.
जो राज्य हड़पने हेतु
लगाते थे फेरी.
उनकों राणा ने कितनी
बार हराया था.
फिर भी रिपुओं का
लालच बाज न आया था.
तब सोचा हमलों से
बचने का यह उपाय.
राजधानी में एक
सुदृढ दुर्ग बनवाया जाय.
फिर क्या था, खोल
दिया राणा ने राजकोष.
सामंतों में, जनता में भी
भर गया जोश.
मुझको गढ़ने, तन मन धन
से जुट गए सभी.
सुखमय भविष्य की
आशा में लुट गए सभी.
"इति"
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